दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी त्रासदियों में एक थी द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन, जो औपनिवेशिकता-विरोधी भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के खिलाफ था। इससे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को इस विशाल भौगोलिक क्षेत्र पर राज करने में काफी मदद मिली। इसी के चलते मुस्लिम बहुमत के आधार पर पाकिस्तान बना और शेष हिस्से में एक धर्मनिरपेक्ष देश, भारत, जिसमें मुसलमानों की खासी आबादी थी। इन मुसलमानों ने हालातों के चलते मजबूर होकर या अपनी पसंद से भारत में ही रहने का फैसला किया। विभाजन की वजह से पाकिस्तान से भारत की ओर बहुत बड़ी संख्या में हिंदुओं का और भारत से पाकिस्तान की ओर मुसलमानों का पलायन हुआ और लोगों को भयावह पीड़ा झेलनी पड़ी।

आज इस त्रासदी के सात दशक बाद, जहां एक ओर हम पाकिस्तान की दुर्दशा देख रहे हैं, जहां लोकतंत्र, तरक्की और समाज कल्याण के पैमानों पर हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भारत में शुरूआत में स्थितियां ठीक रहीं और हम बहुवाद और उन्नति के रास्ते पर आगे बढ़े। लेकिन, अब यहां भी ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत‘ दुबारा पनप रहा है। और इसका प्रमाण है साम्प्रदायिक शक्तियों का प्रबल होते जाना। ये शक्तियां हिंदू राष्ट्र के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपनी राजनीति को अधिकाधिक ज़हरबुझा बना रही हैं। अम्बेडकर ने विभाजन पर लिखी अपनी पुस्तक में आगाह किया था कि पाकिस्तान का बनना सबसे भीषण त्रासदी होगा क्योंकि यह हिन्दू राज का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। उनका अनुमान कितना सही था!

गांधी, मौलाना आजाद और कांग्रेस के इस त्रासदी को रोकने के प्रयास ‘फूट डालो और राज करो‘ की अंग्रेजों की नीति का मुकाबला करने में सफल न हो सके। इसमें उस दौर की साम्प्रदायिक शक्तियों - जिनमें एक ओर थी मुस्लिम लीग और दूसरी ओर हिंदू महासभा व आरएसएस - की विचारधारा और राजनीति भी सहायक रही।

विभाजन, जिसकी बुनियाद में द्विराष्ट्र सिद्धांत था, को लेकर दोनों देशों में बहस और विवाद समय-समय पर सतह पर आते रहते है। हिंदू और मुस्लिम दोनों साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद इस त्रासदी के लिए एक दूसरे को दोषी ठहराते हैं। वे इस त्रासदी की गहरी जड़ें समाज के अस्त होते वर्गों और सामंती शक्तियों में होने की बात को अपेक्षित महत्व नहीं देते। दोनों ओर के पुरोहित-मौलवी वर्गों ने भी इनकी मदद की। ये दोनों साम्प्रदायिक तत्व ‘दूसरे‘ समुदाय के प्रति नफरत फैलाने में सबसे आगे थे। नतीजतन साम्प्रदायिक हिंसा बढ़ती गई और गांधी, मौलाना आजाद जैसी हस्तियां भी विभाजन के बाद हुई भयावह और वीभत्स घटनाओं को रोक नहीं पाईं।

मुस्लिम और हिंदू दोनों समुदायों के साम्प्रदायिक तत्व विभाजन के सम्बन्ध में एकतरफा बात करते हैं, लेकिन पूरे घटनाक्रम को उभरती हुई भारतीय राष्ट्रवाद की विचारधारा और दोनों ओर के अस्त होते जमींदार एवं पुरोहित वर्ग द्वारा उसके विरोध का अध्ययन कर समझा जा सकता है।

पाकिस्तानी जनरल आसिम मुनीर ने एक बार फिर इस बहस को छेड़ दिया है। देश की प्रमुख राजनैतिक हस्तियों की मौजूदगी में इस्लामावाद में प्रवासी पाकिस्तानियों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने ‘द्विराष्ट्र सिद्वांत‘ की प्रशंसा की। उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण में योगदान देने वालों को श्रद्धांजलि अर्पित की। तस्वीर के सिर्फ एक पहलू को सामने रखते  हुए उन्होंने कहा, ‘‘हमारा धर्म अलग है, हमारे रस्मो-रिवाज अलग हैं, हमारी परंपराएं अलग हैं, हमारे विचार अलग हैं, हमारे अरमान अलग हैं - इनसे ही द्विराष्ट्र सिद्धांत की नींव पड़ी। हम एक राष्ट्र नहीं हैं, हम दो राष्ट्र हैं।"

गांधी और नेहरू की समझ इसके ठीक उलट थी। वे इन दो बड़े समुदायों और अन्य छोटे-छोटे धार्मिक समुदायों के बीच संवाद से बनी एक अनूठी समन्वित संस्कृति को देख पा रहे थे – एक ऐसी संस्कृति जिसके हर तबके का एक यशस्वी भारत के उत्थान में योगदान था। समाज में मिलजुलकर त्यौहार मनाने की परंपरा थी और विभिन्न धर्मों के लोगों की भारतीय संस्कृति के सभी पहलुओं में भागीदारी थी। इस संवाद का शिखर था भक्ति और सूफी आन्दोलन। गांधीजी ने इसका सार अपने अद्वितीय भजन ईश्वर अल्लाह तेरो नाम के जरिए पेश किया और नेहरू ने गंगा जमुनी तहजीब के रूप में।

द्विराष्ट्र सिद्धांत कोई अचानक सामने आया विचार नहीं था। समाज के आधुनिक शिक्षा प्राप्त वर्गों एवं उद्योगपतियों के समर्थन से व आवागमन के साधनों के विकास से एक राष्ट्रीय आंदोलन उभरा जिसने समाज को बांटने वाली ताकतों को कमज़ोर किया। समाज के अन्य वर्ग, जिनका इन तबकों से संबंध नहीं था और जो सामंती और पुरातन मूल्यों से जुड़े हुए थे, ने एक ओर मुस्लिम लीग और दूसरी ओर हिंदू महासभा का गठन किया। ये अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति वाले लोग थे और इन्होंने जातिगत और लैंगिक ऊंच-नीच को बढ़ावा दिया और दलितों व महिलाओं की शिक्षा का विरोध किया।

अंग्रेजों ने पर्दे के पीछे से इन तत्वों का समर्थन किया क्योंकि ये राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने में उनके लिए सहायक थे। एक पक्ष मुस्लिम राष्ट्र की बात करता था तो दूसरा हिंदू राष्ट्र की। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के तुरंत बाद राजाओं और नवाबों ने ब्रिटिश शासकों की वफादारी की प्रतिज्ञा कर कांग्रेस के प्रति अपना विरोध दर्ज कराया। धीरे-धीरे ये समानांतर धाराएं उभरीं और 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई. इसे अंग्रेजों ने प्रोत्साहित किया।

दूसरी ओर पंजाब हिंदू सभा की स्थापना 1909 में हुई, हिंदू महासभा की 1915 में और आरएसएस की 1925 में। इन दोनों ने ही गांधीजी की जमकर आलोचना की। औपचारिक रूप से द्विराष्ट्र सिद्धांत विनायक दामोदर सावरकर ने प्रस्तुत किया और यह हिंदू राष्ट्रवाद का मार्गदर्शी सिद्धांत बन गया। मुस्लिम राष्ट्रवादियों ने 1930 से पाकिस्तान की बात करना शुरू की और 1940 में जिन्ना ने इसे सशक्त रूप से सामने रखा।

आज आरएसएस विचारक (बीजेपी और संघ के नेता राम माधव का लेख 'डिकोडिंग जनरल', इंडियन एक्सप्रेस 19 अप्रैल 2025) घटनाक्रम को इस तरह प्रस्तुत करते हैं जैसे द्विराष्ट्र सिद्धांत के लिए केवल मुसलमान ही जिम्मेदार थे जिसे उन्होंने मुस्लिम लीग के माध्यम से प्रस्तुत किया था। वे अल्लाह बख्श, मौलाना आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान के महान योगदान को कम करके दिखाते हैं जो पाकिस्तान की मांग के खिलाफ थे। पाकिस्तान का निर्माण द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर हुआ था और उसके निर्माण के महज 25 वर्ष बाद उसके दो टुकड़े हो गए - पाकिस्तान और बांग्लादेश। इसके साथ ही द्विराष्ट्र सिद्धांत कब्र में दफन हो गया। इन दोनों की दयनीय स्थिति आज हमारे सामने है।

भारत में हिंदू राष्ट्रवाद को पर्दे के पीछे से, दबे-छिपे ढंग से बढ़ावा दिया जा रहा और यह पहली बार तब खतरनाक रूप से सामने आया जब आरएसएस से प्रशिक्षण प्राप्त नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी के नंगे सीने पर तीन गोलियां दाग दीं।. इसके बाद यह 1980 के दशक में इससे अधिक स्पष्ट रूप में सामने आया जब बाबरी मस्जिद ढहाए जाने का विभाजक अभियान छेड़ा गया।

उस दौरान पाकिस्तानी कवियत्री फहमीदा रियाज ने लिखा "अरे तुम भी हम जैसे निकले, अब तक कहां छुपे थे भाई!" इसके बाद धर्मनिरपेक्षता, समावेशी राजनीति और भारतीय संविधान के मूल्यों की अवधारणाओं पर प्रहार तेज हो गए और अब जज्बाती मुद्दे केन्द्र में आ गए। द्विराष्ट्र सिद्धांत से जन्मा पाकिस्तान मुल्ला-सेना गठजोड़ के चंगुल में है और अमरीका का दास बन गया है।

द्विराष्ट्र सिद्धांत का दूसरा हिस्सा, भारत भी हिंदू राष्ट्र बनने के करीब है। दोनों ओर राष्ट्रवाद के मूल्य और उसके परिणाम लगभग एक जैसे हैं, बस उनके स्वरूप में अंतर है। द्विराष्ट्र सिद्धांत की आलोचना और इसके लिए सिर्फ मुसलमानों को दोषी ठहराना अर्धसत्य है!

(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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